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लेखनी कहानी -इतना भी न सताओ की भूत बनकर सताना पड़े - डरावनी कहानियाँ

इतना भी न सताओ की भूत बनकर सताना पड़े - डरावनी कहानियाँ

 इतना भी न सताओ की भूत बनकर सताना पड़े

 

कभी-कभी क्या, हमेशा ही ऐसा होता है मेरे साथ। जब भी इंसान के बारे में सोचता हूँ तो गुस्से से तिलमिला उठता हूँ। कभी हँसना तो कभी रोना आता है इस इंसान पर। बड़ी-बड़ी बातें करने वाला इंसान, नैतिकता की दुहाई देने वाला इंसान, राम-कृष्ण का पुजारी, माँ शक्ति की चरणों में लेटे रहने वाला इंसान। वाह प्रभु, तू ने क्या इंसान बनाया। मुझे तो लगता है कि जब प्रभु ने सब जीवों को बना लिया होगा तो उसके बाद इंसान बनाया होगा ताकि उसकी सृजनता चरितार्थ हो सके। पर क्या उसकी सृजनता मानव के रूप में साकार हो पाई? मुझे तो लगता है कि बिलकुल नहीं। क्यों कि जब तक इस दुनिया में इंसान नहीं आया होगा तब-तक सभी जीव शांति से जी रहे होंगे और इंसान के आते ही उनकी ही क्या, भगवान की शांति भी भंग हो गई होगी।

आपको लगता होगा कि मैं कौन हूँ, और क्यों इतना बकबका रहा हूँ। चलिए बता ही देता हूँ, मैं भी तो इंसान ही बनकर इस जमीं पर आई थी, बहुत सारे सपने थे मेरे, पर इंसान ने ही, अरे इंसान क्या मेरे अपनों ने ही मेरे सारे सपनों में आग लगा दी और लगा दी आग मुझे भी, क्योंकि वे तो इस कहावत में विश्वास करते थे कि ना रहेगा बाँस, ना बजेगी बाँसुरी। जो मेरे नजरों में प्रभु की अनमोल कृति थी, वही उनके नजरों में विपत्ति। और वे लोग तो विपत्ति का समूल नाश करने में ही विश्वास रखते थे।

यह कहानी भले आपको काल्पनिक लगे, पर यह सच्ची कहानी है। आप इस कहानी के ताने-बाने पर मत जाइए, मैं तो इस कहानी की सत्यता से आप लोगों का परिचय कराना चाहती हूँ। जी हाँ आप ठीक समझे, मैं भी इंसान ही हूँ पर नारी हूँ। मैं चीख-चीख कर अपनों से अपनों की भीख माँगती रही पर किसी भी दरिंदे के कान पर जूँ तक नहीं रेंगा और अंततः मुझे इन जालिमों से निपटने के लिए खुद ही जालिम बनना पड़ा, दरिंदगी की हद तक जाना पड़ा। मैं मानती हूँ कि मैंने जो किया वह सही नहीं था पर क्या जो समाज ने, इंसान ने मेरे साथ किया, वह सही था?

मेरा जन्म आज से लगभग 70 साल पहले एक ऐसे गाँव में हुआ था जो धार्मिकता, मानवता की ध्वजा को लहराने वाला माना जाता था। उस समय मेरे गाँव में काली माई, बरमबाबा आदि देवथानों के साथ ही शिवजी का एक छोटा सा मंदिर भी था। घर-घर में माँ तुलसी शोभायमान थीं, सूरज के अस्ताचल में जाते ही इन बिरवों के नीचे मिट्टी के छोटे-छोटे कोरे दीपक जल उठते थे। ऐसे धार्मिकतापूर्ण वातावरण में मैं फली-फूली। विद्यालय का मुँह तो नहीं देखी पर घर पर ही एक कुशल शिक्षक के मार्गदर्शन में बहुत सारे विषयों का अध्ययन की। मुझे गीता और रामायण पढ़ना बहुत ही अच्छा लगता था। मुझे याद है मैं उस समय 14 साल की रही होगी तभी मेरे हाथ पीले कर दिए गए थे।

सादी के बाद मैं नए गाँव, घर-परिवार में आ गई। इस नए घर का माहौल ठीक-ठाक ही था। 2 सालों के बाद मैं एक बच्ची की माँ बन गई। पर मैं कुछ समझ पाती इससे पहले ही वह लड़की पता नहीं कहाँ गायब हो गई और मुझे यह बताया गया कि वह मरी हुई ही पैदा हुई थी, पर मुझे उसका रोता चेहरा आज भी याद है। मैं उस समय कुछ प्रतिकार नहीं कर पाई, क्योंकि घर-गाँव का माहौल ही कुछ ऐसा था कि मेरी सुनने वाला कोई नहीं था। मैं अपने मायके वालों से इस बारे में बात की पर वे लोग भी मेरा साथ नहीं दे पाए। खैर इस घटना को बीते लगभग 1 साल ही बीते थे कि फिर मैं एक बच्ची की माँ बनी। पर हाय रे प्रभु इस बच्ची का मुँह भी ठीक से मैं नहीं देख पाई। पता नहीं प्रभु को क्या मंजूर था। 1-1 वर्ष या 14-15 महीनों पर मैं लगातार बच्चे जनने वाली मशीन बनी रही, पर शायद ये बच्चे समाज, घर के किसी काम के नहीं थे।

एक-एक करके मेरी पुत्रियाँ इस हृदयहीन समाज में साँस लेने के पहले ही काल के गाल में समाती गईं। मुझे याद है लगभग 6-7 सालों में मुझे 5 पुत्रियाँ प्राप्त हुई थीं, पर कोई भी अंगने में किलकारी नहीं ले पाई थी। इनके मौत का राज मेरे लिए अबूझ पहेली था, और इस पहेली को सुलझाने वाला भी कोई नहीं था। अब तो जिस घर में मैं लक्ष्मी बनकर आयी थी, उसी में अब दरिद्रा हो गई थी। एक असहाय अबला। जिसे कोई भी दुरदुरा देता था। किससे कहूँ अपना दुख। खुद मेरे पति भी अब मुझे बात-बात पर मारने दौड़ पड़ते थे। 

एक दिन की बात है, शाम का समय था और मेरे सास-ससुर दोगहे में बैठकर कुछ खुसुर-पुसुर कर रहे थे। पास ही में मेरे पति (अ+देव) भी बैठे हुए थे। उस दिन मैंने हिम्मत करके इन लोगों से कुछ कहने के लिए किवाड़ की ओट में खड़ी हुई। पर यह क्या अभी मैं कुछ कहने की हिम्मत करूँ इससे पहले ही मेरी सास ने मेरे पति से कहा कि ये कलमुँही केवल कलमुँही ही पैदा करेगी। यह जबतक है तेरी दूसरी शादी भी नहीं कर सकती। पर कुछ भी कर एक कुलदीपक दे ही दे मुझे। बिना कुलदीपक का मुँह देखे मैं कत्तई मरना नहीं चाहती। फिर अचानक मेरे पति ने कहा कि माँ धीरज रख। आज ही कुछ इंतजाम कर देता हूँ। मैं तो एकदम से डर गई थी क्योंकि उस समय ये मेरे अपने इंसान कम दरींदा अधिक लग रहे थे।

जिसका डर था वही हुआ। उसी रात मुझपर मिट्टी का तेल छिड़ककर आग के हवाले कर दिया गया। मैं चाहकर भी कुछ न कर सकी, बस केवल चिखती रही, चिल्लाती रही पर सुने कौन? अंततः मेरी इह लीला हो गई। न पुलिस आई न गाँव के कुछ लोग। गाँव के कुछ लोग भी यही कहते रहे कि मैं कुलटा थी, मेरे उस घर में आते ही उस घर की खुशियाँ छिन गई थीं। पर क्या ऐसा था, मुझे पता नहीं। मेरे माता-पिता, भाई-बहन भी बस आँसू ही बहा पाए, कुछ कर नहीं पाए। मेरी आत्मा भटकती रही। कुछ महीनों बाद मेरे पति की दूसरी शादी भी हो गई। पर अब तो मैं पूरी तरह से इन कथित अपनों को सबक सिखाने का मन बना चुकी थी।

तो अब शुरु होता है मेरा बदला...रमेसर काका और रमेसरी काकी आज बहुत परेशान नजर आ रहे थे। उनकी बहू रमकलिया पेट से थी और रह-रहकर कराह उठती थी। पता नहीं क्यों जब भी उसे गर्भ रहता तो उसे पेट में अत्यधिक दर्द शुरु हो जाता। इसके पहले भी उसके 2 भ्रूण नुकसान हो चुके थे। रमेसर काका का एक ही पुत्र था बहोरन। रमकलिया उसकी तीसरी पत्नी थी। दरअसल सुनने में यह आता है कि बहोरन की पहली पत्नी से लगभग 1-1 साल के अंतराल पर 5 पुत्रियाँ पैदा हुई थीं पर सभी मरी हुई और जिसके चलते अंततः बहोरन की पहली पत्नी अपने ऊपर मिट्टी का तेल छिड़ककर आग लगा ली थी और सदा-सदा के लिए इस दुनिया का परित्याग कर दी थी। बहोरन की दूसरी बीबी से केवल दो लड़कियाँ ही थी पर पुत्र की लालसा में बहोरन के माता-पिता ने बहोरन की तीसरी शादी भी कर दी थी। गाँव की दाई की माने तो बहोरन की दूसरी बीबी भी जब एक बार पेट से थी और खरबिरउरा दवा आदि तथा उसके हाव-भाव से ऐसा लगता था कि पेट में लड़का ही है, तो उसे भी सहनीय पीड़ा होती रहती थी और अंततः उसका वह गर्भ भी नुकसान हो गया था। तो गाँव वालों को यह लगता था कि बहोरन की पत्नी को जब भी लड़का होने को होता है तो बहुत ही दर्द होता है और जब लड़की होने को हो तो आराम से हो जाता है। अब गाँव वाले इस बात को बहोरन की पहली पत्नी से जोड़कर देखते थे। 

गाँव में धीरे-धीरे यह भी बात फैलना शुरु हो गई थी कि बहोरन की पहली पत्नी से जो भी पाँच लड़कियाँ पैदा हुई थीं, सबके सब ठीक थीं पर बहोरन काका और उनके घर वालों की मिलीभगत से उन मासूमों को सदा के लिए मिट्टी के नीचे दफना दिया गया था। क्योंकि वे लोग लड़का और सिर्फ लड़का चाहते थे। उन्हें कुलदीपक चाहिए था और उस कुलदीपक के चक्कर में इन लोगों ने शक्ति स्वरूपा कन्याओं को कंस बनकर हत्या कर दी थी। इतना घोर अनर्थ और फिर भी कोई प्रतिकार नहीं? अब तो गाँव वाले सदमे में रहते थे क्योंकि पेट से होने पर गाँव की कई बहुओं के साथ उल्टी-पुल्टी घटनाएँ घटना शुरु हो गई थीं।

खैर अब आपको रमेसर काका के घर में ले चलता हूँ। रमेसर काका की बहू रमकलिया अंगने में पड़ी कराह रही है, पास में गाँव की दाई और गाँव की 2-4 बुजुर्ग महिलाएँ बैठी हुई हैं। सब की सब उदास हैं। रमेसरी काकी रह-रहकर रोती हैं और भुनभुनाती हैं कि उनकी पहली बहू ही यह सब कर रही है। वे अचानक घर से बाहर निकलकर रमेसर काका से कहती हैं कि बहू को किसी अच्छे अस्पताल में भर्ती करा दीजिए। रमेसर काका सहमति में सर हिलाते हैं तभी दाई हड़बड़ाए हुए घर से बाहर निकलती है और रमेसरी काकी की ओर इशारे से कुछ कहती है। अच्छा तो रमेसरी काकी का यह कुलदीपक भी अब इस दुनिया में आने से रह गया।

एक दिन की बात है। रमेसरी काकी रात को खाट पर सोए-सोए ही चिल्लाने लगीं, छोड़-छोड़ मेरा गला। छोड़-छोड़। उनकी आवाज सुनकर रमेसर काका, बहोरन आदि उनके पास आ गए। उन लोगों ने देखा कि रमेसरी काकी खुद ही अपने हाथों से कसकर अपना गला पकड़ी हैं और चिल्लाए जा रही हैं। उनकी आँखें थोड़ी सी लाल हो गई थीं और चेहरे पर हल्की सी सूजन भी आ गई थी। बहोरन ने आगे बढ़कर रमेसरी काकी के गले से उनका हाथ मजबूती से खींचकर अलग किया। फिर रमेसरी काकी को उठाकर एक-दो घूँट पानी पिलाया गया। अब तो पूरे घर वालों के आँखों से नींद कोसों दूर चली गई थी। सभी सहमे हुए ही लग रहे थे क्योंकि रमेसरी काकी रूआँसू होकर कह रही थी कि बहोरनी की पहली बहू ही थी जो उनका गला दबा रही थी। 

दरअसल रमेसरी काकी ने कहा कि आज शाम को जब वे गोहरौरी में से गोहरा निकाल रही थीं, तभी वहाँ उन्हें कोई दिखा था पर अचानक गायब हो गया था। दो मिनट में ही ऐसा लगा कि गोहरौरी में भूचाल आ गया हो और पूरी मड़ई हिलने लगी थी। मैं एकदम से डर कर सर पकड़कर बैठ गई थी। तभी एक औरताना कर्णभेदक हँसी मेरे कानों में पड़ी थी, जो बहुत ही डरावनी थी। बाद में वह हँसी आवाज में बदल गई थी और चिल्ला रही थी कि अगर मैं कलमुँही थी, मेरी बेटियाँ कलमुँही थीं तो तूँ यह कैसे भूल गई कि तूँ भी तो किसी की बेटी है, मैं भी बेटी, तूँ भी बेटी तो केवल मैं ही कलमुँही क्यों? तूं क्यों नहीं? तुझको कुलदीपक चाहिए ना, देती हूँ मैं तुझे कुलदीपक। इतना कहने के बाद वह आवाज फिर से हँसी में बदल गई थी और मैं बस अचेत मन, सहमे हुए वह आवाज सुनती रही थी। और अभी वही मेरा गला भी दबा रही थी। 

प्रभु तो अगम है ही कभी-कभी कुछ ऐसी घटनाएँ भी घटित हो जाती हैं जो किसी अगम से कम नहीं होती। इंसान इनको चमत्कार मान लेता है या किसी गैर-इंसान का कार्य। क्योंकि इसके सिवा कोई चारा भी तो नहीं बचता। रमेसर काका के साथ ही उनका पूरा परिवार तथा उनका पूरा गाँव एक रहस्यमयी संभावित खतरे में जी रहा था। उनको लगता था कि कहीं कुछ तो ऐसा है जो जाने-अनजाने उनका अहित कर रहा है, परेशान कर रहा है उन्हें तथा उनके पूरे गाँव को। उनके ग्राम-प्रधान तथा अन्य घरों के बड़े-बुजुर्ग इस खतरे से पार पाने के लिए हाथ-पैर मार रहे थे पर की समाधान नहीं निकल पा रहा था। गाँव में अखंड किर्तन से लेकर कितने सारे पूजा-पाठ किए गए पर समस्याएं जस की तस। कितने ओझा-सोखा आए पर की समाधान नहीं।

एक दिन गाँव की एक औरत सुबह-सुबह अपने खेतों में गेहूँ काटने गई थी। अचानक उसे पता नहीं क्या हुआ कि विकराल रूप बनाए अपने गाँव में दाखिल हुई और बस एक ही रट लगाए जा रही थी, अब इस गाँव के किसी भी घर में कोई कुलदीपक नहीं आएगा, जो हैं भी, वे भी एक-एक करके काल की गाल में समा जाएंगे, मेरा भोजन बन जाएँगे, मैं किसी को भी नहीं छोड़ूगी, ए ही सब कहते-चिल्लाते वह ग्राम-प्रधान के दरवाजे पर पहुँचकर तपड़ी, “निकल परधान, बाहर निकल, उस दिन तूँ कहाँ था, जब मुझे और मेरी बेटियों को जिंदा ही दफनाया जा रहा था, जलाया जा रहा था, उस दिन तो तूँ, चैन की नींद सो रहा था, रहनुमा बना है न तूँ इस गाँव का....मेरी बात अब कान खोल कर सुन ले, न अब तूँ बचेगा और ना ही इस गाँव का कोई और। सबको तहस-नहस कर दूँगी। चुन-चुन कर बदला लूंगीं, अभी तक तुम लोगों ने एक मरी आत्मा का कहर नहीं देखा है, जो अब शुरु होने वाली है।” इतना सब कहने के बाद व औरत बेहोश हो गी, उसे उठाकर उसके घर पर लाया गया। धीरे-धीरे आधे-एक घंटे में व सचेत हुई।

अब तो उस चुड़ैल ने, भूतनी ने उस गाँव पर अपना कहर बरपाना शुरु कर दिया था। प्रतिदिन कोई न कोई ऐसी घटना घटने लगी जिसने गाँव वालों से उनका चैन छिन लिया। उनके आँखों की नींद सदा के लिए गायब होने लगी। वे लोग आतंक में जीने लगे। अरे यहाँ तक कि उस गाँव के छोटे-छोटे बच्चों को उनकी माँ के साथ किसी न किसी रिस्तेदारी में भेजा जाने लगा। ऐसा लगने लगा कि गाँव में पूरी तरह से आंतक का, भय का साम्राज्य पसर चुका है। सबके चेहरे पर खौफ साफ नजर आने लगा था। प्रतिदिन उस गाँव की महिलाएँ नहा-धोकर दल बनाकर छाक देने देवीताने जाने लगी थीं। कड़ाइयां भाखना शुरु हो गया था। देवताओं की आराधना दिन व दिन बढ़ती ही जा रही थी।

एक दिन रमेसर काका खेतों में मृत पाए गए थे। ऐसा लगता था कि किसी ने उनको तड़पा-तड़पाकर मारा हो। आधे कट्ठे तक की फसल उनके घसीटने के कारण बरबाद हो गई थी। उनके गले पर किसी के अंगुलियों के निसान उभर आए थे, जो बहुत ही भयावह थे। रमेसरी काकी भी एक दिन गोहरौरी में गोहरा निकालने गईं और वहीं एक जहरीले साँप ने उनकी इहलीला कर दी। बहोरन पागल हो गया था। गाँव वालों की माने तो उसे किसी भूत ने अपने चपेट में लेकर पागल बना दिया था। वह एकदम पागलों जैसा इधर-उधर घूमता रहता और लोगों को परेशान किया करता। कभी-कभी उसमें इतना बल आ जाता की लोगों को दौड़ा-दौड़ाकर मारता और इतना मारता कि कुछ लोग अधमरे हो जाते। कभी-कभी तो दिन में भी लोगों के घरों के दरवाजे बंद रहते और कोई घर से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। बरबादी और सिर्फ बरबादी ही दिखाई देती थी उस गाँव में।

कुछ दिनों के बाद एक साधू का आगमन हुआ उस गाँव में। वे बहुत ही सीधे-साधे और धार्मिक स्वभाव के थे। गाँव वाले उनके आगे बहुत गिड़गिड़ाए और उनसे चिरौरी किए कि उन लोगों को इस आत्मा से बचा लिया जाए। साधू बाबा पहले तो स्थिति को अच्छी तरह से समझे और पूरे गाँव वालों को बहुत ही फटकार लगाई। अंत में उन्होंने कुछ अनुष्ठान किया और उस मृत आत्मा को एक औरत पर बुलाया। मृत आत्मा के आते ही वह औरत आपे से बाहर हो गई और उत्पात मचाना शुरु कर दिया फिर साधूबाबा के अनुरोध पर वह धीरे-धीरे शांत हुई और रो-रोकर कहने लगी कि बाबा, इन गाँववालों ने केवल मेरी ही पुत्रियों को नहीं और भी कितनी ही बेटियों को जिदें जी गाँव के बाहर के बगीचे के किनारे दफन कर दिया है। मैं किसी भी किमत पर इन लोगों को छोड़ने वाली नहीं। इस गाँव में कोई नहीं बचेगा। अंत में साधूबाबा ने बहुत अनुनय-विनय करके उस महिला को शांत कराया। फिर गाँव वालों ने स्वपन्न में भी ऐसी घिनौनी हरकत न करने की कसम खाई और साधू बाबा द्वारा एक छोटा अनुष्ठान किया गया। सभी मृतक बालाओं की शांति के मंत्रोच्चार किए गए। 

अभी तो वह गाँव पूरी तरह से शांत है पर अभी भी गाँव में और गाँव के बाहर एक अजीब सन्नाता पसरा रहता है। गाँव के बाहर निकलने पर आज भी ऐसा लगता है कि कोई महिला अपनी छोटी-छोटी बेटियों के साथ रो रही है। और कहीं न कहीं गाँव वालों को अपनी करतूत का भान करा रही है। आज भी मायूस है वह गाँव और वहाँ के लोग। “बेटी है तो कल है, बेटी है तो जीवन है।“

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